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Sunday, March 13, 2011

my favorite poem from veer zaara..............

मैं कैदी नंबर सात सौ छियासी जेल की सलाखों से बाहर देखता हूँ,
दिन महीने सालों को युग में बदलते देखता हूँ ,
इस मिटटी से मेरे बाउजी के खेतों की खुशबू आती है,
यह धुप मेरी माती की ठंडी छास याद दिलाती है ,
यह बारिश मेरे सावन के झूलों को संग संग लाती है
यह सर्दी मेरी लोडी की आग सेक कर जाती है |


वोह कहते हैं यह मेरा देस नहीं
फिर क्यों मेरे देस जैसा लगता है?
वोह कहते है मैं उस जैसा नहीं,
फिर क्यों मुझ जैसा वोह लगता है?


मैं  कैदी नंबर ७८६ जेल की सलाखों से बाहर देख ता हूँ ,
सपनो के गावं से उतरी
एक नन्ही परी को देख ता हूँ |
कहती है खुद को सामिया और मुझ को वीर बुलाती है,
है बिलकुल बेगानी पार अपनों सी जिद वोह करती है ,
उसकी सच्ची बातों से फिर जीने को मान करता है ,
उसके कास्मों वादों से कुछ करने को मन  करता  है |


मैं कैदी नंबर ७८६ जेल की सलाखों से बाहर देख ता हूँ ,
मेरे गावं के रंगों में लिपटी एक नयी ज़ारा को देखता हूँ|
मेरे ख्वाबों को पूरा करते
खुद के ख्वाब भूल चुकी है वोह
मेरे लोगो की सेवा करते
अपने लोगो को चोर चुकी है वोह
उसका दामन आब खुशिओं से भार्नेको जी करता  है
उसके लिया एक और ज़िन्दगी जीने को जी करता है ,


वोह खेते है के में, मेरा देश उसका नहीं ,
फिर क्यूँ मेरे घर वोह रहती है ,
वोह कहते है के में उस जैसा नहीं
फिर क्यूँ मुझ जैसी वोह लगती है |


मैं कैदी नंबर ७८६ जेल की सलाखों से बहार देख ता हूँ ,
वोह कहेते है को वोह कोई नहीं तेरी
फिर क्यूँ मेरे लिए दुनिया से वोह लडती है ,
वोह कहेते है के में उस जैसा नहीं ,
फिर क्यूँ मुझ जैसी वोह लगती है |
                               -– Aditya Chopra/Javed Akhtar and probably some final touches from SRK

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